यशराज फिल्म्स की कामयाब फिल्मों में शुमार ‘धूम’ और ‘धूम 2’ के बाद जब निर्देशक संजय गढ़वी ‘धूम 3′ का निर्देशन नहीं किया तो इस बात की चर्चा होने लगी कि आदित्य चोपड़ा के साथ मनमुटाव के चलते संजय गढ़वी ने ये फिल्म नहीं की। अपने जन्मदिन के मौके पर ‘अमर उजाला’ से एक एक्सक्लूसिव बातचीत में संजय गढवी कहते हैं, ‘यशराज फिल्म्स के साथ हर निर्देशक का तीन प्रोजेक्ट का ही करार होता है। इसके बाद निर्देशक चाहे तो बाहर जा सकता है। मुझे बाहर अनुभव लेना था। रिस्क लेना था।आज जिस भी मुकाम पर हूं उसमें आदित्य चोपड़ा का बहुत बड़ा हाथ है।’ चर्चाएं होती रहती है कि संजय गढ़वी ‘धूम 4’ की कमान संभाल सकते हैं। इस सवाल के जवाब में संजय गढ़वी ने अपने मन की बात बताई है। लेकिन उसे जानने से पहले चलते हैं संजय गढ़वी के निजी जीवन में और उन्हीं की जुबानी जानने की कोशिश करते हैं कि सिनेमा का शौक उन्हें लगा कहां से…
मेरे पिता मनुभाई गढ़वी गुजराती लोक साहित्यकार, निर्माता- निर्देशक, गीतकार, कवि, स्तंभकार, रामायण कथा वाचक, श्रीमद् भागवत कथा वाचक, जैन कथा वाचक रहे हैं। उन्होंने 1966 में एक गुजराती फिल्म ‘कसुम बिनो रंग’ बनाई थी जिसमें संगीत कल्याणजी आनंदजी का था और लता मंगेशकर ने गीत गाया था। उस फिल्म के प्रीमियर में मैं अपनी मम्मी लीला गढ़वी के पेट में था। फिल्म का शौक मुझे वहीं से मिला। ये मेरे डीएनए में है। मेरी मम्मी को हिंदी सिनेमा देखने का बहुत शौक था हालांकि जब मैं पैदा हुआ तो एक साल तक उन्होंने कोई फिल्म नहीं देखी वरना वह हर फिल्म अपनी सहेली के साथ फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखती थीं।
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उधास मामा लोरी गा कर सुनाते थे
पिताजी और कल्याणजी आनंदजी बहुत ही गहरे दोस्त रहे। पंकज उधास और मनहर उदास हमारे गढ़वी समुदाय के हैं और हमारे मामा लगते हैं। वे मम्मी के चचेरे भाई हैं। कल्याणजी से मनहर उधास को मेरी मम्मी ने ही मिलवाया था। जब मैं छोटा था तब पंकज और मनहर मामा मुझे लोरी गाकर सुनाते थे। उस समय मुंबई में हमारा छोटा सा घर हुआ करता था। मेरी मम्मी का सरनेम शादी से पहले उधास ही था। गढ़वी जो हमारा सरनेम है वह हमारे समुदाय का नाम है। पिता जी ने गढ़वी सरनेम लगाना शुरू किया तो और भी लोगों ने उनका अनुसरण करना शुरू कर दिया।
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एक साल की उम्र में देखी ‘राम और श्याम’
मेरे जन्म के बाद मम्मी मेरी देखभाल में बिजी हो गईं। मेरी मम्मी की सहेली ने कहा कि एक साल हो गए हमने फिल्म नहीं देखी, चलकर देखते हैं। मम्मी का यह मानना था कि फिल्म देखते वक्त फिल्म का पूरा मजा लेना चाहिए। मैं साल भर का था और ये डर था कि कहीं फिल्म के बीच में रोने न लगूं। मम्मी की सहेली ने सलाह दी कि घर के सेवक आत्माराम को भी ले चलते हैं, जब मैं रोऊंगा तब वह मुझे लेकर बाहर आ जाएगा। इस तरह से प्लान बना और चार टिकटें खरीदी गईं। मम्मी बताती है कि मैं बिल्कुल भी रोया नहीं। आंखे फाड़ फाड़ कर फिल्म देख रहा था, वह फिल्म थी ‘राम और श्याम’।
आदित्य चोपडा ने जताया भरोसा
आठ साल की उम्र तक आते आते मैंने कर लिया था कि सिनेमा ही मेरा जीवन है। शुरुआत सहायक निर्देशन से की और जब पहली फिल्म ‘तेरे लिए’ बनाई तभी से सपना था कि ऐसी फिल्म बनानी है जो पूरी तरह से बड़ी स्टार कास्ट वाली मलाला फिल्म हो। फिर ‘मेरे यार की शादी है’ बनाई और जब ‘धूम’ की बारी आई तो सोचा कि मनमोहन देसाई की तरह इंटरटेनर मसाला फिल्में बनानी है। ‘धूम’ में जॉन अब्राहम, अभिषेक बच्चन और उदय चोपड़ा को लिया, उन दिनों वे उतने सफल अभिनेता नहीं थे। फिर भी आदित्य चोपड़ा ने मुझ पर भरोसा किया और ‘धूम’ ने धूम मचा दी। मनमोहन देसाई वाला सिनेमा बनाने की मेरी ख्वाहिश ‘धूम 2’ में पूरी हुई।